शनिवार, 2 जून 2012

अज्ञ: सुखमाराध्य: सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञ:, ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि च तं नरं न रंजयति॥
ना समझ को समझाना बहुत् आसान है, ज्ञानवान को समझाना और भी आसान है , पर थोड़े से ज्ञान से स्वयम को पण्डित मानाने वाले अल्पज्ञ को ब्रह्मा भी सन्तुष्ट् नहीं कर सकते ।
An ignorant person is easy to please> It is still easier to please a man of learning , but even the god brahmaa can not please a man who is partial talented.
प्रसह्य मणिमुद्धरेन्मकरवक्त्रदंष्ट्राब्तरात्, समुद्रमपि सन्तरेत् प्रचलदूर्मिमालाकुलम्
भुजंगमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद् धारयेत्, न तु प्रतिनिविष्ट-मूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥
  मगरमच्छ  के  मुख की दाढों के बीच से मणि को साहस करके निकालना सम्भव है , वेगवती लहरों से उफ़नते समुद्रको भी तैर कर पार करना  सम्भव है। क्रुद्ध नागराज  को भी सिर् पर पुष्प माला की तरह धाराण किया जा सकता है।  किन्तु दुर्गुण में फ़ँसे मूर्ख आदमी के चित्त को सद्गुणों की ओर मोड़ना आसान नहीं ।
It is possible  to tear off a gem sticking in the roots of a crocodile's teeth. It is possible to swim across the ocean  made impassable by a series of tossing currents. It is even possible to adorn one's head with a angry snake as if it wear a flower, but it is very difficult to please the heart of a bigoted and ignorant person.

गुरुवार, 31 मई 2012

नीति-संग्रह

याम् चिन्तयामि सततम् महि सा विरक्ता , साप्यन्यमिच्छति जन: स जनोन्यसक्त: ।
असमत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या, धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च
                                                                                       ---------------- भर्तृहरिशतक  
जिसका सदा  चिन्तन करता हूँ  , वह् मेरे से विरक्त है । वह किसी और्  पर आसक्त है , और वह  और  किसी अन्य पर आसक्त है, और मुझे तो कोई अन्य ही चाहता  है,  इसलिये काम देव सहित जिसकी प्रेरणा से यह सबकुछ  हो , रहा है, सबको धिक्कार है।                

बुधवार, 30 मई 2012








प्रणामांजलि
परम श्रद्धेय प्राचार्य प्रवर श्री योगेश्वर भारद्वाज जी को उनके सेवा-निवृत्ति के परम पावन अवसर पर विद्यालय के छात्रों की ओर से श्रद्धापूरित भाव-सुमन-सज्जित प्रणामांजलि !!!!!!!!!!!

गुरुवर को शत-शत है प्रणाम !
योगेश्वर की महिमा पाए, नयी किरण बन कर थे आए
कण-कण में भर देते प्राण, गुरुवर को शत-शत है प्रणाम !
संबल थे , सबके थे सहारा, प्रतिपल हाथों में था उजारा
करते थे सबका जो त्राण, गुरुवर को शत-शत है प्रणाम !
परिवर्तन की जोत जलाई, सत्-शिक्षण की रीति बताई
नवचेतन की छेड़ी तान, गुरुवर को शत-शत है प्रणाम !
अनुशासनप्रियता थी प्यारी, कार्यकुशलता थी अति न्यारी
जन-जन में भर दी थी जान, गुरुवर को शत-शत है प्रणाम !
मधुर भावपूरित मन प्यारा, सत्य, सहज जीवन अति न्यारा
अति कठोर होते जो भान, गुरुवर को शत-शत है प्रणाम !
परहित ही जिनका था नारा, स्वार्थ मुक्त जीवन का सहारा
कर्म-प्रेम का गाते गान, गुरुवर को शत-शत है प्रणाम !
हे दिव्य कर्म के सच्चे योगी, विगलित करुणा सबकी होगी
सत्य श्रेष्ठ हे पुरुष महान, गुरुवर को शत –शत है प्रणाम !
स्मृति के तारों से गूंथे, भाव-सुमन के हार अनूठे
श्रद्धा से अर्पण अभिराम, गुरुवर को शत-शत है प्रणाम ! 

रचयिता : डा.वी.आर.पाण्डेय (विजय शास्त्री)

गुरुवार, 17 नवंबर 2011


सतत प्रवहमान सरिता





जीवन का यह नव प्रभात है ,
                  सदा सत्य-पथ  पर रहना |
फूल मिलें या काँटे जो भी ,
                     नित समभाव से सब सहना ||

जीवन तो यह कर्म -क्षेत्र है ,
                       कायर की यहाँ पहचान नहीं |
जो रहते नित कर्म-मार्ग पर ,
                       विजय सदा पाते हैं वही ||

                
                                                        -------------------     डा० विजय शास्त्री
                                                                                        तिथि : १७.११.२०११